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चूक / सुनील श्रीवास्तव

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बस, यहीं चूक जाता हूँ

रोज़ एक छुरी
रखकर ऑफ़िस बैग में
निकलता हूँ घर से
दफ़्तर के आलीशान कमरे में
कुर्सी पर बैठा अजगर
लपलपाता है जीभ
खोलता है मुँह
मुझे निगलने को जब
तो छुरी क्या
भूल जाता हूँ अपना आदमी होना भी
खरगोश-सा बन्द कर लेता हूँ आँखें
निगले जाने को प्रस्तुत

बस, यहीं चूक जाता हूँ

नैहर गई पत्नी
शिद्दत से करती है इन्तज़ार
शाम होने का
आता हूँ घर तो आता उसका कॉल
पूछती हाल-चाल

कई-कई बातें बतियाती
आखिर में करती है निहोरा –
‘देखना चान्द को आज
कितना सुन्दर लग रहा

और मैं,
मैं खोलता हूँ डायरी
लिखता हूँ आज का ख़र्च
फिर उसे आमदनी से घटाता हूँ
बैलेंस निकालता हूँ
और शून्य से बढ़ती उसकी निकटता
को देख शून्य हो जाता हूँ

बस, यहीं चूक जाता हूँ

बचपन का दोस्त पगलाकर
कर लेता है ख़ुदकुशी
फ़ोन पर आती है ख़बर
आते नहीं आंसू मगर

और भी कुछ ख़बरें
पगलाए हुए दोस्तों की
खड़ी हैं कतार में,

बेरोज़गार भाई ने किया था कॉल
उसकी आवाज़ में भी
झाँकने लगा है
कुछ सन्देहास्पद

सोचता हूँ
सोचता जाता हूँ
आख़िर यह हल निकालता हूँ
कि स्विच-ऑफ़ कर
रख देता हूँ फ़ोन

बस, यहीं चूक जाता हूँ

तोन्द पर हाथ फेरते लल्लन बाबू
गोल्डन फ्रेम के चश्मे से पढ़ते हैं अख़बार
नक्सलियों को गरियाते हैं
चाय सुड़कते हम
हाँ में हाँ मिलाते हैं

छाती में लेकर कैंसर की गाँठें
पोछा लगाती निधिया की माई
माँगती है महीने का एडवांस
छह सौ रुपये में क्या
भर जाएगा पेट

हो जाएगी दवाई
पूछ नहीं पाता हूँ

बस, यहीं चूक जाता हूँ

लेकिन बात यह भी है
मैं चूकता नहीं, दोस्त, कभी
चूक जाने का अभिनय करता हूँ
ताकि तुम पहचान न सको मुझे
कर न सको सबसे अलग

यह रोज़ जो थोड़ा-थोड़ा ज़हर
देते हो तुम मुझे
उसे सहेज कर रखता हूँ एक घड़े में
भर जाएगा जब यह
डाल आऊँगा तुम्हारे कुएँ में
यह सपना मुझे रोज़ आता है

मैं रोज़ यह सपना देख बहल जाता हूँ
बस, यहीं चूक जाता हूँ