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चूहेदानी / निलय उपाध्याय

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टूट गई चूहेदानी
टूट गया बरसों का संचित यक़ीन

दीवारों को जंग खा गई
लाचार है लौह-तीलियाँ
कह भी नही पाती
कि चौकस नहीं रही अब उसकी चोंच

घर में गेहूँ के बोरे से
कपड़े तक
कुछ नहीं नहीं सलामत,
हवा में उड़ते है कविताओं के पन्ने
गाँधी की आत्मकथा का हाल देख आती है रूलाई
और यह कैसे बयान करूँ कि
हमारी नज़रो के सामने
एक चूहा आया
रसोई में घुसा, ढक्कन हटाया, रोटी निकाली
और चूहेदानी में घुसकर खाता रहा
इतमिनान से

भाड़ में जाय ऐसी चूहेदानी

मगर चूहे ?
चुहे
किसी से नहीं डरते

बिल्ली की
गर्दन में घंटी बाँध देते हैं
कुतर देते है बाँस...
बाँसुरी वाले का

क्या सचमुच कोई अयस्क नहीं
धरती के गर्भ मे

क्या सचमुच कोई कारीगर नहीं
किसकी चाकरी मे लगा है विज्ञान

सुनो
अरे कोई तो सुनो..

देखो...
अरे कोई तो देखो

नूनी खा गया
नींद मे सोए
मेरे अबोध बेटे की
लोढ़े की तरह एक मोटा चूहा ।