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चेतना उपेक्षित है / कुँअर बेचैन

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कैसी विडंबना है

जिस दिन ठिठुर रही थी

कुहरे-भरी नदी, माँ की उदास काया।

लानी थी गर्म चादर; मैं मेज़पोश लाया।


कैसा नशा चढ़ा है

यह आज़ टाइयों पर

आँखे तरेरती हैं

अपनी सुराहियों पर

मन से ना बाँध पाई रिश्तें गुलाब जैसे

ये राखियाँ बँधी हैं केवल कलाइयों पर


कैसी विडंबना है

जिस दिन मुझे पिता ने,

बैसाखियाँ हटाकर; बेटा कहा, बुलाया।

मैं अर्थ ढूँढ़ने को तब शब्दकोश लाया।


तहज़ीब की दवा को

जो रोग लग गया है

इंसान तक अभी तो

दो-चार डग गया है

जाने किसे-किसे यह अब राख में बदल दे

जो बर्फ़ को नदी में चंदन सुलग गया है


कैसी विडंबना है

इस सभ्यता-शिखर पर

मन में जमी बरफ़ ने इतना धुँआ उड़ाया।

लपटें न दी दिखाई; सारा शहर जलाया।

-- यह कविता Dr.Bhawna Kunwar द्वारा कविता कोश में डाली गयी है।