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चेतना की धार / स्वदेश भारती

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चेतना की धार प्रवाहित होती पहले सीधे
फिर दाएँ-बाएँ घूमती हुई
मन की रेत को जहाँ-तहाँ बहा ले जाती
फिर कई अन्तरधाराएँ जन्म लेतीं
मस्तिष्क ग्लेशियर से गर्वोन्नत कल-कल
छल-छल गिरती हैं छन्दबद्ध अथवा छन्द विच्यूत
धार कई-कई रूपों में प्रवाहित होती
वृहत्तर प्राण-शोक सर्जित करती
जल से तृप्त करती बिना रीते
उकेरती नव-बीज, स्फुरित करती
धन्य-धान्य भरी भू-गर्भा
हरित-भरित कर प्राण में नवप्राण जोड़ती नवनीत...

मानव चेतना की घास कभी सूखती नहीं, न मिटती
समय परिवर्तन के साथ-साथ
नव चेतना की धार अपनी दिशा बदलती
जीवन को हरिताम्बरा करती
नए-नए सुख-उष्मा से भरती
चेतना की धार प्रवाहित होती आत्मगत सीधे
मन सम्प्रीति का सेतु तोड़
इसी तरह कई कई युग बीते ।

कोलकाता, 26 अप्रैल 2013