हर दिशा में जल उठी ज्वाला नयी, 
लालिमा जीवन-जगत पर छा गयी ! 
है नयी पदचाप से गुंजित मही, 
ज्योति अभिनव हर किरण बिखरा रही ! 
छिन्न सदियों का अंधेरा हो गया, 
राह पर जगमग सबेरा है नया ! 
यह विगत युग का न कोई साज़ है, 
रूप ही बदला धरा ने आज है ! 
वर्ग-भेदों को मिटाने चेतना 
कर रही सामान्य की आराधना ! 
काल बदला और बदली सभ्यता, 
दे रही नव फूल संस्कृति की लता ! 
फूल वे जिनमें मधुर सौरभ भरा, 
मुसकराती पा जिन्हें भू-उर्वरा ! 
स्वार्थ, शोषण की इमारत ढह रही, 
भग्न ढूहों पर सृजन-सरि बह रही ! 
शीत के लघु-ताप से सिकुड़े हुओं, 
पास आता जा रहा 'क्यूरो सिवो' ! 
धूप से झुलसे हुए 'होरी' कृषक 
आ रही 'जल की हवा' जीवन-जनक ! 
उर लगाले जीर्ण 'धनिया'-देह को 
(रोक ले रे ! छलछलाते स्नेह को !) 
आज तो आकाश अपना हो गया, 
आदमी का, सत्य सपना हो गया ! 
रचनाकाल: 1948