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चेहरा सबका याद है लेकिन रिश्ता पीछे छूट गया / निश्तर ख़ानक़ाही
Kavita Kosh से
आगे पहुँची जल की धारा बजरा पीछे छूट गया
रस्ता छोड़ सवारों को मैं प्यादा पीछे छूट गया
ये बस्ती कौन-सी बस्ती है, आके कहाँ बस ठहर गई
चाहा था जिस धाम रुकें, वो क़स्बा पीछे छूट गया
आगे-आगे लंबी डगर है रेत-भरे मैदानों की
जिस तट इक पल ठहरे थे, वह दरिया पीछे छूट गया
बैठे हैं सैलानी सारे,पतझड़ है विश्वासों का
मंदिर छूटा, गिरजा छूटा, काबा पीछे छूट गया
कितने कुछ थे जीवन-साथी, कितने कुछ थे लहू-शरीक
चेहरा सबका याद है लेकिन रिश्ता पीछे छूट गया