भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चेहरे विकास के / महेश सन्तोषी
Kavita Kosh से
विकास का कोई हमसे सही हिसाब तक नहीं लेता,
कल तक ऐसे तो नहीं थे हमारे विकास के चेहरे,
बाज़ार में अब बिकने लगी हैं हमारी आस्थाएँ,
मन पर अब नहीं रहे आत्मा के पहरे!
जमीर जब-जब सड़कों पर नीलाम हुआ,
बेचने वालों में हम ही थे सबसे पहले,
घास से पट गये हैं, पास के शिलान्यास,
इतिहास बन गये शिलालेखों के अँधेरे,
दे सके तो दे दें हम विकास को आँखें
धड़कने और प्राण!
आदमी का चेहरा दे दें उसे हम
उसे दे दें ओस-सी ताज़ी उम्र के सोपान,
वक़्त सबका सही हिसाब रखता है
वक़्त ही नोचेगा कल हमारे चेहरे!