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चैत-दुपहरी / योगेन्द्र दत्त शर्मा
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खेत, मुंडेर, सिवाने, आंगन
सभी बुहार गईं!
चैत-दुपहरी चेहरों का भी
रंग उतार गई!
झुलस गई तुलसी लूओं से
सूख गये पत्ते
लटक गये छज्जों के नीचे
बर्रों के छत्ते
कौन हवा सीटी-सी देकर
काग विडार गई!
पीपल-नीचे बैठा महतो
भरता हुंकारा
जैसे किसी घने जंगल में
गूंजे इकतारा
कटी डाल उड़ते-उड़ते क्या
ताना मार गई!
तैर गये सूनी आंखों में
बादल के टुकड़े
हुलसाये मन हुए अचानक
क्यों उखड़े-उखड़े
बदहवास खामोशी कितनी
हो लाचार गई!