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चोट जितने हों, हरे हों / अमरेन्द्र

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चोट जितने हों, हरे हों
वेदना से तन-मन भरे हों !

सुख ! तुम्हारे हाथ में पड़
एक डर ने है सताया,
तुम कहीं न छूट जाओ
आज जिसको देख पाया;
उम्र की चाहत हुई है
जो असंभव उसे चाहा,
पाँव-कर से हीन होकर
सिन्धु को बन मूढ़ थाहा;
तैरना चाहा वहीं पर
शायद न कोई तरे हों ।

दुःख ! तुम्हारे साथ रह कर
कब डरा जीवन-मरण से,
प्राण को घेरे रहे हो
एक मुक्ति-आवरण से;
हूँ तुम्हारे साथ में तो
ताप तीनों प्रेय-सुखकर,
तुम जहाँ हो, उस जगह पर
मृत्यु शीतल, मृत्यु सुन्दर !
जो क्षणिक हैं, शोक-कारक
वे सभी मुझसे परे हों ।