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चोट / अनिता मंडा
Kavita Kosh से
दो हथेलियाँ बचाये हुए थीं
एक दीये को
हवा की मनमानी से
दीये ने फिर भी संचित किया था
छाया भर अविश्वास अपने तले
आत्मग्लानि के दाह से सियाह था
बाती का हृदय
कच्ची नींद से जागी आँखें
जोड़ती हैं स्वप्न के तार
हथेलियाँ पोंछती हैं खारापन
ठहरी झील में क़ैद एक सिहरन
उपकार मानती है उस कंकर का
जिसने उसे उसका होना बताया
खारे समुंदर से जन्मा साँवला बादल
हवा की उंगली थामे दौड़ता हुआ
गिर पड़ता है, ठोकर खा कर
कोई-कोई चोट ही होती है
इतने मीठे से भरपूर
जितना कि प्रेम।