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चौदहपदी / बैर्तोल्त ब्रेष्त / वीणा भाटिया
Kavita Kosh से
जिन बातों से गए दिनों की याद आ गई
वो था जल का शोर और घर के बाहर वाले
ऊँचे पेड़ों की सर-सर-सर-सर-सर की आवाज़
फिर मैं डूबा बहुत देर तक नींद आ गई ।
यूँ मैं उसके बारे में कितना बोलूँगा
उसके टखने, उसकी गर्दन, उसकी ख़ुशबू
काली-काली केशराशि में बसी हुई बू
लोगों की फैलाई बातें क्यों खोलूँगा।
कहते हैं आँखों से ओझल होते-होते
ग़ुम हो जाता है इंसाँ का असली चेहरा,
किसी सिनेमा के पर्दे पर ज्यूँ था उभरा –
ग़ुम होते ही लोग रह गए शून्य समेटे।
वो साधारण चेहरे वाली लड़की भी ये कैसे जाने
क्या होते हैं ग़ुम होकर कविताओं में आने के माने।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : वीणा भाटिया