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छंद 143 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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रूप घनाक्षरी
(अभिसार-वर्णन)

अंग-अंग रागनि सौं सौंने-सी भई है दुति, फूले घने पादप नए हैं पारिजात बन।
टूटि परे हारन सौं रतनमई है भूमि, ती है घनीं जाहि तुम जानत हौ देबी-गन॥
पीरे परे जात कहा सुनौं हो सुमेरुगिरि! ‘द्विजदेव’ की सौं भ्रम नाँहक तिहारे मन।
या बिधि सौं आज बृषभाँनुजा पधारीं इतै, सोधन करत सबै गोधन-गिरीस-तन॥

भावार्थ: हे हेमगिरि! आप गोवर्द्धनगिरि की स्पर्द्धा से क्यों पीले पड़े जाते हो और क्यों भ्रम में डूबे रहे हो? क्योंकि वह क्षुद्र पर्वत आपकी समता को कदापि नहीं पा सकता। इस क्षणिक शोभा का कारण यह है कि श्रीराधा महारानी अपनी सखियों के साथ गोवर्द्धन पर पधारी हैं, अतः उन्हींके अंगरागों की गिरी हुई केसर से पर्वत कंचन-सा दीखता है और श्रीमती के चरणों के प्रताप से संपूर्ण वृक्षावली फूल-फल से संपन्न होकर मनोवांछित फल देनेवाली हो रही है, यह कल्पवृक्ष कदापि नहीं है? इतस्ततः रत्नमयी भूमि इसे न जानो? यह सहचरियों के टूटै हुए हारों के अनेक रत्न बिथुरे (बिखरे) पड़े हैं ओर जिनमें तुम देवांगनाओं का भ्रम करते हो वे तो परिचारिकाएँ हैं।