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छंद 144 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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रूप घनाक्षरी
(परकीया नायिका-वर्णन)

कानन गए तैं कहौं कौंन की न भूलै मति, हूलै नाहिँ काके हिऐं नैन की अनी अनूप।
पाइ अधरामधुर न काहि भ्रम भासै कहूँ, निकसैं निकासे परे लोचन कपोल-कूप॥
‘द्विजदेव’ ताही तैं प्रनाम करिवेहै तुम्हैं, भावत हौ भू पै इन भाइन भलेई भूप।
चहुँघाँ चबाइन की मंडली बनाइ हाइ, दई निरदई दियौ वाहि जो पैं ऐसौ रूप॥

भावार्थ: हे निर्दयी ब्रह्मा! आप नमस्कार करने योग्य हैं, इन चालों से आप भू (पृथ्वी) पर भूपालों-से भले ही दीख पड़ते हैं। एक तरफ तो नायक का ‘मनमोहन रूप’ बनाया और दूसरी तरफ ‘चबाइनों’ को उत्पन्न किया, अब हम ऐसे रूप को आँख भर देख भी नहीं सकतीं? जो कहो कि तुम उधर देखती ही क्यो हो? तो क्या करें, वन (वृंदावन) में जाने से मार्ग का भूल जाना सहज ही है, यदि मेरा मन भूल से बहक गया तो क्या आश्चर्य है और प्यारे के ‘नयनों’ की ‘कोर’ से ‘अनी’ (बरछे की नोक) की उपमा दी जाती है तो उनकी कोर-कटाक्ष ने जो मेरा हृदय विदीर्ण किया तो क्या आश्चर्य है? तथा ‘अधर-मधु’ के पान से भ्रम का होना भी अनुचित ही है, क्योंकि मधु ‘मदिरा’ को भी कहते हैं जिसके पीने से उन्माद सरीखा हो जाता है एवं यह भी सिद्ध ही है कि ‘कूप’ में गिरने से कोई स्वयं नहीं निकल सकता तो मेरी दृष्टि भी ‘कपोल-कूप’ अर्थात प्यारे की मुसकान के समय में उनके कपोलों में जो ‘गर्त’ (कूप) पड़ता है उसमें गिरी है, तो कहो पूर्वोक्त संपूर्ण विरुद्ध रचनाएँ आप ही की सृअिष्ट में हैं अथवा इसके वास्ते हम किसी दूसरे ब्रह्मा को उलाहना दें। क्या आप मुझे मूढ़मति न बना सकते थे? मधु आदि शब्दों में ‘अभिधामूलक’ व्यंग्य है।