भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छंद 182 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दुर्मिल सवैया
(लक्षिता नायिका-वर्णन)

अति राते-सुहाते दिंगतन मैं, कछु आरस की रुचि राखि चली।
इहिँ भाइ सुधा-मधु पाइ कितै, अभिलाषि-पयोनिधि नाखि चली॥
‘द्विजदेव’ जू आज प्रभात-समैं, बन कौंन के नामहिँ भाखि चली।
मुख-सौं-मुख लाइ अघाइ कितै, रस कौंनैं रसाल कौ चाखि चली॥

भावार्थ: किसी लक्षिता नायिका के रति-चिह्नों को लक्षित कर सखी प्रत्यक्ष पूछने का अवसर न पाकर आम्र-भोजन के व्याज से पूछती है कि हे सखी! तेरे किंचित अरुणता से सुशोभित नेत्रों की कोर में आलस्य की झलक कैसी है, जो इस प्रकार सुधा-मधु पान कर मनवांछित-समुद्र का उल्लंघन किए तू प्रसन्न जा रही है। आज प्रातः काल में किस पुण्यवान् का नाम तूने लिया था जिसका यह फल है? तू बता तो सही कि कहाँ और किस रसाल (नायक और आम्र) के रस को इच्छापूर्वक तूने चखा है? आम्र-भोजन से भी अरुणता और आलस्य नेत्रों में आ जाता है। ‘सुधा-मधु पान’ आम्र के रसपान को भी कहते हैं और सुरति काल में भी दंपती का बारंबार मुख-चुंबन होता है तथा आम के चूसने में भी बारंबार उसकी ढेंपी को अपने मुख से लगाकर रस खींचना होता है। इस कवित्त में अभिधामूलक व्यंग्य के द्वारा समासोक्ति अलंकार कहा गया है।