छंद 224 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मत्तगयंद सवैया
(मध्याधीरा नायिका-वर्णन)
राँचे पितंबर ज्यौं चहुँघाँ, कछु तैसिऐ लाली दिगंतन छाई।
यौं मुसुकात प्रभात-समैं, सजि आए जु कंत बसंत-निकाई॥
तातैं सबै ‘द्विजदेव’ मनाइ, बिनोद सौं वारती लौंन औ राई।
को न बिकात लखे बिन दाम, सखी! यह स्याम की सुंदरताई॥
भावार्थ: हे सखी! स्याम सलोने की सुंदरताई देख बे-मूल्य (बिना मूल्य) ही कौन नहीं बिक जाता! देखो, प्राणप्यारे ने वसंत ऋतु का वेश कैसा अच्छा धारण किया है, जैसे पीतांबर (पीत आकाश) वसंत में धूलि उड़ने से दिखाई देता है वैसे ही ये भी पीतांबर (पीत वसन) से शरीर को आच्छादित कर समस्त रति-चिह्नों को छिपाए हैं और जैसे वसंत काल में दिगंत (दिशाओं के अंत) में किंशुकों (पलाश) के कुसुमित होने से लाली (ललाई) दिखाई देती है, वैसे ही आपके दिगंत (लोचन के अंत) में रात्रि-जागरण के कारण लालिमा दीख पड़ रही है तथा वसंत के प्रातःकाल में जैसे कुसुम समूह विकसित होते हैं वैसे ही ये भी प्रातःकाल में प्रसन्न हो मुसकान-संयुक्त दर्शित हुए हैं। इस कारण समस्त देव-ब्राह्मणों की चरण वंदना कर हमराई, लोन वारती हैं कि ऐसे मनोहर स्वरूप पर किसी की कुदृष्टि न पड़ जाए। (इस छंद के अर्थ का बहुत सा भाग विपरीत लक्षण से पूर्ण होता है।)