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छंद 234 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मत्तगयंद सवैया
(स्वाधीनपतिका नायिका-वर्णन)

ज्यौं-ज्यौं उतै कछु लाड़ली के,उन पंकज-पाँइन जात झँवा छ्वै।
नाक-मरोरि, सकोरि कैं भौंह सु त्यौं-त्यौं रहे हरि आँखिन सौं ज्वै॥
सो तकि बाल निहाल सी होति, बिथा तब अंग की कौंन गनैं स्वै।
राधिका के सुख-काज सु तौ सखि! पाँइ की पीर उपाइ गई ह्वै॥

भावार्थ: इधर श्रीराधिकाजी के गुलाब सरीखे पगों पर झवाँ ऐसी कठोर वस्तु के घिसने से कदाचित् दुःख होता हो, कृष्णचंद्र (नायक) ऐसा अनुभव कर नाक चढ़ाए भौंह मरोड़ बारंबार सहानुभूति की दृष्टि से देखते हैं और उधर लाडली भी उनको पूर्वोक्त कारणों से दुःखित देख उनके प्रेमाधिक्य से अपने को धन्य मानती है। हे सखी! राधिकाजी के पग झवाँने की क्रिया उनके सुख के हेतु हुई, व्यथा की क्या कथा है। यह स्वाधीनपतिका (नायिका) है। इस सवैया में अपुष्टार्थमूलक लक्षणा है, अपुष्टार्थ उसको कहते हैं जो पद अपुष्ट हो और दूसरे अर्थ का प्रकाश करे, जैसे- ‘दृग सौं ज्वै’ नेत्रों से तो देखा ही जाता है अर्थात् वह देखना ज्ञानपूर्वक नहीं किंतु केवल निरीक्षण मात्र है।