छंद 244 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मनहरन घनाक्षरी
(पुनः वसंत-वर्णन)
फेरि बन बौरे, मन-बौरे-से करन लागे, फेरि मंद-सुरभि-समीर ह्वै कितंत गौ।
फेरि धीर-नासन पलासन मैं लागी आगि, बहुरि बिरहिँ-जूह डरपि इंकत गौ॥
‘द्विजदेव’ देखि इन भायन धरा तैं फेरि, जानिऐं कहाँ धौं भाजि सो हिमंत अंत गौ।
फेरि उर-अंतर तैं डगरि गयौई ग्यान, फेरि बन-बागन मैं बगरि बसंत गौ॥
भावार्थ: पुष्प-मुकुलित अर्थात् बौरी अमराइयों को देख मन फिर बौरा गया; अर्थात् उन्माद को प्राप्त हुआ। मंद वायु ‘कितंत’ गया, कितंत कृतांत का अपभ्रंश है, और कृतांत यमराज को कहते हैं। यथा-”यमुनाभ्राता“-यमराज लँगड़ा है, यह पौराणिक वार्त्ता है, अतएव उसकी गति मंद है, अतः यम की तरह (पवन) डोलने लगा, पुनः धैर्य छुड़ानेवाली पलाश वृक्षावली पुष्पित होकर आग-सी दहकाने लगी और बिरहीजन भयाकुल हो एकांतवास करने लगे। ऐसी दशा देख शिशिर इस पृथ्वीतल से न जाने कहाँ भाग गया, पूर्व कथित कारणों से हृदय फिर ज्ञानशून्य हो गया और फिर वन-वाटिकाओं में वसंत का राज हुआ, यानी कवि कहता है कि जब उसके हृदय में ज्ञान ही नहीं रहा तो उपमा, उपमेयादिक कहने की शक्ति उसमें कैसे रह सकती थी?