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छंद 264 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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   मत्तगयंद सवैया
(ग्रीवा-वर्णन)

पाँवरी पेवरी ता छिनतैं, दुति कंचन की मन रंच न लैहै।
त्यौं ‘द्विजदेव’ जू सीप-हराऊ, जबाहिर-हार के मोल बिकैहै॥
एक बराटिका ह्वै वह कंबु, अमोल गरे की जु पैं सरि पैहै।
काँच की पोतऊ तौ गरुऐ गज-गौहर-आगैं गुमान बढ़ैहै॥

भावार्थ: हे द्विजदेव जू! यदि कंबु या शंख से अर्थात् एक प्रकार का घोंघा या कौड़ी से उस ‘कृष्ण प्रिया’ के ‘कंठ-देश’ की समता दी जावे तो अथवा दूसरा अर्थ इसका यह भी हुआ कि तुम उस ग्रीवा की वराटिका अर्थात् कौड़ी से बराबरी किया चाहते हो, यानी कौड़ी के मोल का उसे समझते हो, यदि इस संसार में योग्य-अयोग्य का विचार छोड़ कर ऐसा ही किया जाए तो महातुच्छ पेवड़ी (पिवरैया) भी जांबूनद (सुवर्ण) की बराबरी करेगी एवं सीप में बने हुए हार, महामूल्यवान् रत्नों के हारों की बराबरी करेंगे और काँच के बने हुए पोत के दाने भी गजमुक्ता ऐसे महान् रत्न के सम्मुख गर्व धारण करेंगे।