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छंद 42 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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रोला
(गच्छत्पतिका, आगमिष्यत्पतिका और प्रोषित्पतिका आदि का संक्षिप्त वर्णन)

और गाँव हरि चलत, कबहुँ राधा दुख पावैं।
आवत जानि बहोरि, हिऐं आनँद उपजावैं॥
बसि बिदेस हरि कबहूँ बिरहा-दुख पावैं।
ह्वै बिरहिनि तिय बिलखि, दूति हरि-पास पठावैं॥

भावार्थ: कभी दूसरे ग्राम की प्राणप्यारे को जाते देख ‘राधिका’ दुःखित होती हैं; कभी फिर (वापस) आते देख पुनः आनंद मनाती हैं और कभी विदेश में हरि बसकर-रहकर विरह-दुःख पाते हैं और श्रीराधिका विरहिणी की गति धारण कर उनके पास दूती पठाती हैं।