छंद 54 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
कलाधर घनाक्षरी
(भारती विनय-वर्णन)
जैसी कछु कीन्ही द्विज-देव की बिनै के बस, कीन्ही अब सोई ‘द्विजदेव’ चित-चाँहे तैं।
मोहि तौ भरोसौ नाहिँ आपनी कुबुद्धि लखि, निबिहै हमारी अब तेरेई निबाहे तैं॥
कीन्हैं कंठ भूषन बिदूषन पैं दीन्हैं कर, पग-पग पूरैं धुनि अमित उँमाहे तैं।
तजि कमलासनै, जु आई हौ हुलासनै, तौ चित-कमलासनै न भूषौ देबि काहे तैं॥
भावार्थ: हे भगवती! द्विजो और देवताओं की विनय के वश हो पूर्वकाल में जैसी तुमने उनपर कृपा की, उसी प्रकार ‘द्विजदेव कवि’ के चित्त की चाह भी तुमने पूरी की। मुझको अपनी कुबुद्धि के कारण यह भरोसा नहीं था, किंतु आपके निर्देश से मैं ‘श्रीराधारानी’ के सुयश कहने को तत्पर हुआ और आपके ही निबाहे से मैं इसके वर्णन में समर्थ हो सकूँगा। इससे जो तुम मेरे कंठ को भूषित करते हुए और मेरे दूषणों पर हाथ दिए अर्थात् छिपाए हुए पग-पग पर नूपुरों की झनकार से मेरी बुद्धि को स्फुरित करते हुए कमलासन को त्यागकर परम हर्षयुक्त मुझे आधीन तक शीघ्र पधारी हैं तो यहाँ भी मेरा चित्तरूपी ‘कमल-आसन’ सुसज्जित है, आप इसपर क्यों नहीं समासीन होतीं?