भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छंद 68 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मत्तगयंद सवैया
(कविकृत श्रीराधिकाजी की वंदना)

भूषण सारे सँवारे जराउ, जिन्हैं लखि तारे लगैं अति फीके।
त्यौं ‘द्विजदेव’ जू आनन की छबि, अंग सबै सरमाँइ ससी के॥
ताहू पैं भानु-प्रभा-निदरैं, लसैं चंचल कुंडल कानन नींके।
मोह-मई-तम क्यौं न मिटै, इमि ध्यान धरैं बृषभाँनु-लली के॥

भावार्थ: श्रीराधिकाजी के दर्शन से हृदय के मोहरूपी अंधकार का मिटना उचित ही है, क्योंकि एक साधारण दीपक के प्रकाश से तम का नाश होता है तो नख-शिख रत्नमय भूषण, जिनके प्रति रत्न की उजियारी से तारागण फीके मालूम होते हैं और निष्कलंक चंद्रमुख, जिसे देख चंद्रमा भी लज्जित होता है, तिसपर भी एक सूर्य की कौन कहे, दोनों कानों में दो कुंडल दो सूर्यों की प्रभा की निंदा करते हुए चमचमा रहे हैं तो ऐसे समय में जब संपूर्ण तारागण एकत्रित होकर एक ज्योति हों व कलंकरहित चंद्रमा की ज्योत्स्ना भी मिली हो और दो-दो सूर्य प्राकृतिक सूर्य से विशेष तेजयुक्त हों तिसपर भी हिलते हुए तेज-पुंज को बढ़ाते पूर्व वर्णित उजियारी में आ मिलें तब तम (अंधकार) के विद्यमान रहने की संभावना ही क्या!