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छंद 84 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मनहरन घनाक्षरी
(परकीया प्रोषितपतिका नायिका-वर्णन)

साँझ ही तैं आवत हलावत कटारी कर, पाइ कैं कुसंगति कृसानु-दुखदाई कौ।
निपट निसंक ह्वै तजी तैं कुल-काँनि खानि औगुन की नैंकऊ तुलै न बाप-भाई कौ॥
ऐ रे मतिमंद चंद! आवत न लाज तोहिँ, देत दुख बापुरे-बियोगी समुदाई कौ।
ह्वै कैं सुधा-धाम काम-विष कौं बगारै मूढ़! ह्वै कैं द्विजराज काज करत कसाई कौ॥

भावार्थ: कोई विरहिणी चंद्र-चंद्रिका से दुखित हो इस प्रकार चंद्र-बिंब की निंदा करती है कि हे चंद्र! तुम सायंकाल ही से आकर समस्त रात्रि, कर में कटारी लेकर हिलाते अर्थात् हनन करने की इच्छा प्रकट करते हो, यह तुम्हारा दोष नहीं है, किंतु समुद्र में बड़वाग्नि के सहवास से तुम्हारी यह प्रकृति पड़ी है, पर खेद इतना ही है कि परम निश्शंक होकर तुमने कुल-कानि का त्याग किया और ऐसे अवगुणों की खान बने हो कि तुम्हारे पिता समुद्र, जो परम गंभीर हैं और तुम्हारे भाई धन्वंतरादिक, जो मृतकों को भी सजीवन करते हैं, उनकी तुमसे तुलना नहीं हो सकती। ऐ मति मंद चंद्र! तुझको लज्जा नहीं आती जोकि बेचारे वियोगी समुदाय को दुःख देते हो, क्योंकि दुखियों पर अत्याचार करना कदापि उच्च और वीर-प्रकृति लोगों के योग्य नहीं है, उस पर भी तुम्हारा नाम ‘सुधा-धाम’ अर्थात् ‘अमृत का आलय’ लोग कहते हैं, परंतु हाय...? मूढ़ता-विवश द्विजराज होकर भी कसाई का कर्म कर कामरूपी विष को फैलाते हो।