छठम खण्ड / भाग 5 / बैजू मिश्र 'देहाती'
अश्रु धार छल लखनक आँखि,
सहसा सर्पदंशक दुख राखि।
पहुँचि गेल रथ विपिनक ओर,
गहन वनक छल ओर ने छोर।
आगाँ छल एकपरिया बाट,
पगहि चलक छल नहि छल काट।
उतरि गेला नहि देखि उपाए,
रथकें बान्हल गाछ लगाए।
उबर खाबर छल ओ बाट,
ताहूपर छल पाथर काँट,
आगाँ छली सिया सुकुमारि।
पाछाँ छला लखन मन मारि,
धरै छली बचि बचिकए पैर,
तदपि कयल पाथर तहँबैर।
सियक पैरमे लागल ठेस,
खासली चेत ने रहलनि लेस।
लखन घूमि अएला निज धाम,
छोड़ि सियाकें ताही ठाम।
मिथिला राज्यक राज दुलारि,
छली अनाथ भेलि सुकुमारि।
पशु पक्षीकें दृग छल नोर,
लतो वृक्ष नहि रहल कठोर।
हवा बहाबए डोलय जोर,
छल प्रयास नहि ककरो थोर।
पक्षी गण दौगए जल कात,
आनए जल उझलए हुनि गात।
मुख मण्डल पर छीटय पानि,
गोहराबए ईश्वरकें कानि।
शीघ्र करू मम सफल प्रयास,
करू ने दीनक हृदय हतास।
आतुर आनए भरि भरिचांच,
बिनु भय विपिनक लागत खोंच।
मृग समूह नेने छल घेरि,
व्याकुल मन दुर्लभर जल हेरि।
लहरावए जिह्वा सँ चाटि,
खसल छली जगमाता माटि।
क्यो पग क्यो गुद गुदबए हाथ,
क्यो लघु लघु सहराबए माथ।
कठिन प्रयास सभक मन राखि,
सियकें खोलल ईश्वर आँखि।
तखनहि आबि गेला ऋषिकेतु,
वालमीक एहि पथ फल हेतु।
देखितहि ऋषी गेला पहिचानि,
लए अएला आश्रम सुख मानि।
खग मृग सेहो चलल सिय सेंग,
हर्ष पुलक छल सबहक अंग।
कोइलि सुनबए मधुमय गीत,
नाचय ठुमकए मयुर अमीत।
कूदि फानि मृग दैछल ताल,
सारस हंस नचाबए भाल।
शुक बजैत छल मधुरस घोरि,
आनो खग बाजए मधु बोरि।
कतेक करत क्यो सुखक बखान,
कठिन राति गत भेल विहान।
ऋषि पत्नी सभ अएली दौरि,
कयल सुश्रुषा जनु कर नोरि।
तेना देलनि सिय देहकें जाँति,
स्वस्थ भेली सीता सभ भाँति।
हँसी खुशीमे संध्या भेल,
खग मृग सभ सेहो घर गेल।
आयल सभ पुनि भोरे भोर,
कलरव करए मचाव शोर।
कुटी छोड़ि सिय बाहर आबि,
भेली प्रफुल्लित बहुसुख पाबि।
छूबि देह बहु कयल दुलार,
सबहक उर छल हर्ष अपार।
पुनि सांझहुँमे भूख मेटाए,
आयल सिय लग सभ समुदाए।
ओहिना सियसँ पाबि दुलार,
नाचि गाबि पौलक सुखसार,
दिन प्रति दिन केर बनल रेवाज,
आबए खग मृग सकल समाज।
प्रति दिन सीता लेथि आनंद,
पहिलुक सोचक गति भेल मंद।
ऋषिपत्नी सबहक अति नेह,
बिसरि गेली धन सम्पति गेह।
जाए विपिनमे जारनि आनि,
भारस करथि जुटाबथि पानि।
ऊखरिमे दए कूटथि धान,
झटकि फटकि बनबथि जनु चान।
आश्रम थलकें बहरथि नित्य।
खनहुँ ने बूझथि निजकें भृत्य।
राज्ञी रहितहुँ कर सभ काज,
उपजनि मन नहि कौखन लाज।
बीतए दिन अहिना सुख संग,
सतत् भरल उत्साह उमंग।
ईश कृपा किछुदिन उपरान्त,
वेदन एकदिन कायल अशांत।
ऋषिपत्नी सभ कहल बुझाए,
ऋषिकें, डगरिन लाउ बजाए।
आएल डगरितन बिनु किछुदेरि,
उपचारल परदासँ घेरि।
जन्म सिया जौंआ कै देल,
आश्रममे अतिसैं सुख भेल।
नाम धयल लव कुश वाल्मीक,
सम्मति लए तहँ सकल यतीक।
टीपनिमे शुभग्रह नखत्र,
भाग्यवान दूहू बलबंत।
खग मृग आयल दोसर प्रात,
सियक पुत्रलखि गद गदगात।
द्विगुणित नाचल गौलक गीत,
स्वर्ग दृश्य छल तुच्छ प्रतीत।
खगपरबा नाचल किछुकाल,
झुका देने छल मयूरक भाल।
घुटुर घुटुर कहि देखबए भाव,
कयल मयूरक छोट प्रभाव।
वालमीक मन परमानंद,
लूटथि मधु जनुकर मकरंद।
नित्य खेलाबथि भोरे सांझ,
लए लव कुशकैं कोरक माँझ।
ततेक भए गेलनि ऋषिकैं मोह,
कत नित कर्म रहिन नहि सोह।