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छठम मुद्रा / भाग 2 / अगस्त्यायनी / मार्कण्डेय प्रवासी

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याज्ञिक संस्कृतिके ऋषिवर नूतन दिशा देल
आदित्य, अग्नि आ वायुक संगतिकरण भेल

कयलनि अगस्त्य देवत्वक मांत्रिक समीकरण
अनुभव भेलनि: नहि पृथक इन्द्र आ अरुण वरुण

सक्रिय अछि परमात्मा तत्वक अगणित विभूति
वितरित अछि एक अनेक मध्य, सत्यानुभूति

काजक अनुरूप पृथक अछि नाम, रूप आ गुण
अछि मधुर समष्टि स्वभाव विभेदक भाव करुण

एको टा देव न अन्य देव तत्वक विरुद्ध
ते सामंजस्यक सृष्टि चक्र अछि अनवरुद्ध

छै प्रकृतिक कण-कणमे नियमक सापेक्षवाद
ऋत दृष्टि दैछ आध्यात्मिक ऐक्यक दृश्य स्वाद

कहलनि ऋषि: ‘‘स्वर्ग मुक्ति अछि आ बन्धने मर्त्य
प्रकृतिक सत्यसँ भिन्न न अछि, अध्यात्म सत्य

नैतिक अभ्यंतर बल अछि, भौतिक बाह्म शक्ति
दूनू ऋत अछि, जनु कारकमे होइछ विभक्ति

अन्नके खाद्य मानव अछि शुद्ध ऋताधारित
श्रद्धा जगैछ ऋतमे असत्य अछि दुत्कारित

साफल्य दैत अछि इच्छा-शक्तिक अति घ्ज्ञनत्व
अध्यात्म दैत अछि नैतिकतामे ऋत-रमत्व

दीक्षा दै’ अछि दक्षिणा, दक्षिणासँ जिनगी
आदर्शमुखर भ’ बाँटै अछि सत्यक चिनगी

तहिना, रवि किरण तप्त जल घन बरिसै’ अछि
बिसरै अछि तापक शाप, सरसता परसै’ अछि

सम्पूर्ण विश्व संचालित अछि नैतिक बलपर
निर्भर रहैछ व्यंजनी व्याप सूक्ष्मित स्वरपर

प्रत्येक प्राकृतिक अवयवमे समताक भाव
अछि व्याप्त आ सजग, जनु भू गर्भक सलिल-स्राव

केवल न प्रार्थना, मंत्र दर्शनक अछि अभीष्ट
यज्ञक प्रयोगशाला साकार करैछ ईश

अछि कर्मकाण्ड लोकोपकार-विज्ञान-ज्ञान
विनियोगयुक्त मंत्रक सार्थकते अछि प्रमाण

मांत्रिक बल जन जीवनक मार्ग-दर्शन करैछ
कविता जिनगीके आशावादी दिशा दैछ

प्रत्येक शब्द अछि सार्थकता संवहन सेतु
ऋषि वा कवि ओ अछि जे जनैत अछि काव्य हेतु

उद्देश्य मुखरतासँ होइत अछि प्रखर काव्य
कविताक सत्य प्राकृतिक सत्य सन स्वयंसाध्य

ऋषि कर्मक स्वाभाविकता ऋषिके शक्ति दैछ
जिनगीक मूल्यवत्ता अध्यात्मिक भक्ति दछ’’

अनुभव कयलनि ऋषि काव्य अतिललित इच्छा अछि
देवत्व प्राकृतिक उन्नति-शास्त्रक शिक्षा अछि

ऋत-दर्शन सत्य-निरूपणेक अछि पृथक नाम
पुष्पित जिजीविषा सुरभित अछि ऋक, यजु, साम

इच्छाके ऊर्जामे परिणत करबाक दृष्टि
ऋषिमे होइछ ते पूजै’ अछि सम्पूर्ण सृष्टि

आत्मिक पवित्रता चारित्रिक उत्कर्ष दैछ
निर्मल मन वाणीके माधुर्यक हर्ष दैछ

भ’ भद्रभावमय तन-मन ज्योतिकथा कहइछ
मानवमे देवत्वक अमरत्व-सुधा भरइछ

इन्द्रासन होइछ सत्य तपोबलसँ ऊर्जित
सामर्थ्य पबै अछि जीवन भ’ धर्मोत्सर्गित

झुकि-झुकि जाइछ सभ दिशा, मंत्रक बल जँ जागय
भेटैछ सर्वविजयश्री जँ मन भय त्यागय

इच्छा वैविध्ये जकाँ साधना सिद्धि विविध
किछ भौतिक, किछु आध्यात्मिक किछ देवी संज्ञित

तप-दिशा-दृष्टि निश्चित होइछ इच्छानुसार

मानव अछि अपन भविष्यक सक्षम अभियन्ता
कैवल्य पबै अछि आत्मिक शक्तिक सुनियंता

शिष्टता करै’ अछि केन्द्रित जखने स्वर-संयम
ध्वनि-ज्ञान, वायु-विज्ञान करै’ अछि रश्मि-रमण

अन्तिम आहुति द’ यज्ञ पूर्ण कयलनि अगस्त्य
यज्ञस्थलमे एकीकृत लगलै स्वर्ग-मर्त्य

लोपाक संग कयलनि ऋषि विधिवत् प्रदक्षिणा
बँटलनि विभूति रहि प्रकृति पुरुष वामा-दहिना

कलशक जलसँ पल्लव अभिसिक्त भेल जन-गण
छल महामांगलिक मुद्रामे घन पूर्ण गगन

तेरह वर्षक ऋषि पुत्र दृढ़स्य प्रसाद बाँटि
छल अपन पिता माताक सफलता रहल जाँचि

लोपा बाजलि: बेटा! बनि पैघ मंत्रदृष्टा
बनबे तोहूँ मांत्रिक विज्ञानक स्वर-स्रष्टा

कहलनि ऋषि: ‘वेद - ज्ञानसँ परिचित अछि सुपुत्र
शास्त्रार्थ करै’ अछि घूमि घूमिक यत्र कुत्र

हवनक निमित्त समिधा अनैत छल सोत्साह
ते दोसर नाम रखलिऐ अछि हम इध्मवाह

यद्यपि ऋषि कुलमे विद्याभ्यासे अछि प्रसिद्ध
तैयो सभ टा ऋषि पुत्र न होइछ शास्त्रसिद्ध

जन्मना मूर्ख बालक संस्कारे द्विज बनैछ
प्रतिभा अभ्यासक स्पर्शेसँ क्षिप्रता लैछ

तेजस्विताक पर्याय बनै’ अछि गतिमयता
अनवरत साधना तत्व मङै अछि साधकता

हे प्राणप्रिये! स्वाध्याय दृढस्युक तोष दैछ
आत्माके आत्मिक प्रगति प्रतीक भरोस दैछ

एहन दिन छी हम, जकरा केवल एक सूर्य
संतोष दैछ एकाकी पुत्रक ज्ञान-तूर्य

पुत्रक मूर्खता व्यथासँ चिन्तित ऋषि अनेक
सूखि क’ काँट भ’ बिसरि रहल छथि श्री-विवेक

बापक विद्याक अहंकारे कतिपय ऋषि सुत
संस्कारहीन भ’ भेल अमंगल तथा अबुध

लोपे! अछि श्रेय अहींके जे सम्हरल दृढस्यु
अन्यथा हमर व्यस्तता दैत सामाजिक पशु

साधक कुलमे पुत्रक विकासपर अल्प ध्यान
रहइछ ते भ’ जाइछ भावी दु्रम लता म्लान

लोपामुद्रे! अछि सफल अहाँकेर मातृ नीति
स्वीकार करू अहं अभिनन्दनमय प्राण-प्रीति’’

देखलि लोपा, छल हवन कुंड सभ उत्साहित
एक सय आठ टा घूम्र पंक्ति छल अपराजित

अनुभव कयलक शीतल पवनक अति सुखद स्पर्श
बरिसल जल, गगन प्रकट कयलक याज्ञिकी हर्ष