छड़ोल्हू / पवन चौहान
छड़ोल्हू<ref>बाँस की एक छोटी टोकरी</ref>
मात्र बर्तन नहीं है
इसमें बसी है मझयाड़े<ref>बाँस की वस्तुएं बनाने वाला</ref> की
कड़ी मेहनत
उसकी कलाकारी
उसके सपनों के अनबूझे रंग
इसकी बनावट के हर मोड़ पर
छुपा है उसका अनवरत संघर्श
उसकी उंगलियों की बारिक कसावट
और शायद उसके खून का हल्का-सा कतरा भी
जो निकल आया होगा
किसी बेरहम ‘छीड़’<ref>लकड़ी से निकला हुआ बारीक और पैना टुकड़ा</ref> के चुभने पर
हल्के से ज्यादा दर्द के साथ
उसकी दो जून की रोटी के संघर्श का
अहसास करवाता हुआ
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माँ के हाथों में पहुँचते ही छड़ोल्हू
पा जाता है एक नया रुप
एक नया आशियाना
और नए लोगों का साथ भी
मां खरीदते हुए इसे
देखती है हर ओर से
इसकी बनावट इसकी गोलाई
इसकी मजबूती
हर तसल्ली के साथ
छड़ोल्हु के घर में आते ही
भर दिए जाते हैं इसमें
अपनेपन के न छूटने वाले असंख्य रंग
मां धोती है इसमें
अपने खेतों की रसायनयुक्त कनक
ताकि बचा रह सके सबका स्वस्थ्य
क्यारी से चुगती है
हरी-हरी सरसों की पत्तियां
साग के लिए
सजाती है इसमें
‘कुड़म’<ref>समधी</ref> के बेटे की षादी के लिए
ढेरों पकवान
जब बांटता है यह
पूरी ‘घेहड़’<ref>भात खाने को बैठी लोगों की पंक्ति</ref> को भात
बढ़ जाता है इसका दायरा
और नए रिश्तों की उर्जा भी
अन्य सामान के साथ
यहां बेटी की षादी में दिया जाता है छड़ोल्हू
जो बाँटता है नए घर में
बेटी का हर काम में हाथ
और फिर इसी तरह
समय के साथ पाता जाता है छड़ोल्हु विस्तार
अपनी उम्र को दर्शाता
गहरा भूरा रंग
और अपनेपन का अहसास भी
यह आज भी लगा है अपने काम पर
गांव और शहर
कहीं न कहीं
अपने अपने ढंग से
हर आदमी को परखता, समझता
और रसोई की कील पर टंगा
थोड़ी देर सुस्ताता
अपने अगले काम की रणनीति बनाता हुआ