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छन्द और छल / सुरेश सलिल

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उतरते हुए आकाश से
बढ़ते हुए अपनी ओर
देखा उन्होंने जब मृत्यु को
तो भय से भरकर
छिपा लिया उन्होंने स्वयं को छन्द में
इस तरह छान्दोग्य के कवि
भौतिक काया को भले नहीं, बचाए रह पाए भावी
  युग के लिए
         अपने कवि -स्वर को ।

ऐसा करिश्मा किन्तु
    निर्मल जल से छलछलाता छन्द ही कर सकता है ।
छन्द के साथ चल जुड़ जाए यदि
तो राजकवि, राष्ट्रकवि भले बन लें कोई थोड़े समय के लिए,
कबीर या निराला का पद नहीं पा सकता ।

छन्द छलछलाता है गद्य जैसी दीखती
काव्यपंक्तियों में भी
शमशेर, त्रिलोचन इसकी मिसाल हैं

आज के खद्योत किन्तु
छन्द विहीन छल में
   कमाल हैं ।