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छले गए / मनोज जैन 'मधुर'
Kavita Kosh से
हम पांसे है
शकुनि चाल के
मन मर्ज़ी से
चले गए।
डगर डगर पर
छले गए।
छले गए हम
कभी शब्द से
कभी शब्द की सत्ता से।
विज्ञापन से
कभी नियति से
और कभी गुणवत्ता से।
कभी देव के
कभी दनुज के
पाँव तले हम
दले गए।
डगर डगर पर
छले गए।
नागनाथ के
पुचकारे हम
सांपनाथ के डसे हुए।
नख से शिख तक
बाज़ारों की
बाहों में हम कसे हुए।
क्रूर समय की
गरम कड़ाही में
निस दिन हम तले गए।
डगर डगर पर
छले गए।
हम सब के सब
भरमाये हैं
और ठगे हैं अपनों के।
जाने कब तक
महल ढहेंगे
भोले भाले सपनो के।
शख्त हथेली
पर सत्ता की
रगड़ रगड़ कर मले गए।
डगर डगर पर छले गए।