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छल का बल / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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51
छल का बल
जब है पहचाना
हर भेद है जाना,
प्राणों के प्यारे
रहे ताक में सदा-
लेने प्राण हमारे ।
52
अकारण चुप्पी
व्यथित करे मन
हम ही दु:ख जाने
बिना दोष के
तिल-तिल जलते
पर रो भी न पाएँ
53
मन कुन्दन
मस्तक का चन्दन
सदा हर बहन
आए संकट
कर दूँ मैं अर्पण
ये अपना जीवन ।
54
जहाँ भी गए
मिला खारा सागर
रही खाली गागर
भरते भी कैसे
रुलाया था इतना
आँसू भी सूख गए ।
55
मरु-जीवन
युगों -युगों की प्यास
सूखे सभी दरिया
पाँव में छाले
लौटना भी मुश्किल
है कौन जो सँभाले !
56
सच है यही-
तुम मेरे बल हो
तेरा हूँ मैं सम्बल,
याद रहेगा-
सार यही जीवन का
नाता सच्चे मन का ।
57
उर –कम्पन
निर्मल ज्यों दर्पन
भावों –भरी मिठास,
सुख-दु:ख-से
सदा साथ रहेंगे
बनके परछाई।
58
मन -सौरभ
करता सुरभित
प्राणों की अँगड़ाई,
भाव-डोर से
छाया-सी बँधी तुम
जीवन –अमराई।
59
बोल तुम्हारे
बने शीतल छाया
छतनार नीम की ,
जीवन खिला
शब्दों का मधुरिम
स्पर्श मिला मन को ।
60
छलती छाया
सगे-सम्बन्धी -जैसे
जब दुर्दिन आते ,
मिलता कोई
हमको मीत साँचा
जो मन को भी बाँचे
61
भावों की छाया
सारे कर्म हमारे
निर्मल-कलुषित
हम पावन-
धरती मधुवन
खिलते उपवन ।