छाया-घर / अनुपम सिंह
जहाँ रह सकती हूँ शान्त और अडिग
दुनिया के नक़्शे पर खोज रही हूँ
वे जगहें
कहाँ-कहाँ बचा है जगंल
साँप, बिच्छू, विषखोपड़ा
गोह, गिरगिट, कठफोड़वा
केकड़े, बुलेट चीटियाँ और ज़हरीली मकड़ियाँ !
शेर की दुम खींचते आदिवासी बच्चे
उनको बरजती माएँ उनकी
कहाँ है नदी का निर्जन किनारा
जल के आईने में रूप सँवारती
लाल पेट वाली मछलियाँ !
स्विमिंग सूट पहन तैराकी करते मगरमच्छ
सैर के लिए निकले नीले कछुए
अपना सफ़ेद पैराशूट सुखाते बगुले
वहीं मिलेगी नम मिट्टी
डाल लूँगी साझा चूल्हा
अनादि अग्नि जल उठेगी
वहीं पेंग रही होंगी मधुमक्खियाँ
गीत गा रही होगी समर टेंगर और कैनरी
सो जाऊँगी वहीं ओढ़कर पेड़ की छाया
खोज रही हूँ वह जगह
जहाँ बना सकूँ जीवन का यह छाया-घर
जहाँ से कर सकूँ प्रतिकार
ऐसे जीवन !
ऐसी मृत्यु का
जिसका करती आई हूँ अभ्यास
जहाँ मेरे साधारण जीवन
उससे भी साधारण मेरी मृत्यु को
कोई हिकारत से न देखे ।