छाया दर्पण / सुमित्रानंदन पंत
यह मेरा दर्पण चिर मोहित!
जीवन के गोपन रहस्य सब
इसमें होते शब्द तरंगित!
कितने स्वर्गिक स्वप्न शिखर
माया की प्रिय घाटियाँ मनोरम,
इसमें जगते इन्द्रधनुष से
कितने रंगों के प्रकाश तम!
जो कुछ होता सिद्ध जगत में
मन में जिसका उठता उपक्रम
इस जादू के दर्पण में घटना
अदृश्य हो उठतीं चित्रित!
नंगे भूखों के क्रंदन पर
हँसता इसमें निर्मम शोषण,
आदर्शों के सौध बिखरते
खड़े जीर्ण जन मन में मोहन!
झंकृत इसमें मानव आत्मा
उर उर में जो करती घोषण
इस दर्पण में युग जीवन की
छाया गहरी पड़ी कलंकित!
दीख रहा उगता इसमें
मानव भविष्य का ज्योतित आनन
मानव आत्मा जब धरती पर
विचरेगी धर ज्योति के चरण!
डूबेंगे नव मनुष्यत्व में
देश जाति गत कटु संघर्षण
पाश मुक्त होगी यह वसुधा
मानव श्रम से बन मनुजोचित!
कौन युवक युवती, मानव की
घृणित विवशताओं से पीड़ित
मानवता के हित निज जीवन
प्राण करेंगी सुख से अर्पित?
(अंतर्वाह्य दैन्य दुःखों से
अगणित तन मन हैं परितापित!)
यह माया का दर्पण उनके
गौरव से होगा स्वर्णांकित!