छिड़ा ज़िक्र जब यार का बज़्म में / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
छिड़ा ज़िक्र जब यार का बज़्म में
बड़ा लुत्फ़ आने लगा बज़्म में
मुझे देख कर जब वो मुसका दिया
अयां राज़े-उल्फ़त हुआ बज़्म में
मिले तब पता असलियत का चला
रहा कुछ न शिक़वा-गिला बज़्म में
किसी की सताने लगी याद जब
हुआ दौरे-मातम बपा बज़्म में
निकल जो सकी दर्द में डूबकर
रही गंूजती वो सदा बज़्म में
अँधेरा अदावत का सब दूर हो
जलाओ दिया प्यार का बज़्म में
दिलों पर सभी के था जादू किया
बशर एक ऐसा भी था बज़्म में
दग़ा रात-दिन दोस्तों से किया
दिखाओगे क्या मुँह भला बज़्म में
कबीरा कोई, सूर-तुलसी कोई
नहीं कोई छोटा-बड़ा बज़्म में
घड़ी दो घड़ी का है मेला यहाँ
रहेगा न कोई सदा बज़्म में
भुलाओ न वादों को अपने सनम
करो याद जो था कहा बज़्म में
सभी उसकी आमद के थे मुन्तज़िर
वही एक तनहा न था बज़्म में
तलबगार सब थे मए-हुस्न के
वही एक तनहा न था बज़्म में
‘मधुप’ आज है कल न होगा यहाँ
मिलेगी न फिर ये ज़िया बज़्म में