भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
छिपी भी / केदारनाथ अग्रवाल
Kavita Kosh से
छिपी भी
न छिपी रह सकी हो तुम
भावों में अपने
खुल गई हो तुम,
जैसे खुल गई आँख
सजीव स्वप्न से भरी
चांदनी दर्पण में
कोई देखे, या न देखे,
मैं देखता हूँ तुम्हें ।
मौन भी
न मौन रह सकी हो तुम
वसन्त में अपने
मुखर हो गई हो तुम
जैसे मुखर शंख-से बजते रंग
फूल की मौन पंखुरियों से,
कोई सुने या न सुने,
मैं सुनता हूँ तुम्हें ।