छुक-छुक रेल / प्रभुदयाल श्रीवास्तव
एक ज़माना था जब बच्चो,
रेल चला करती थी छुक छुक।
इंजन काले हाथी जैसा,
धुंआ निकलता था तब भुक भुक।
चाल बहुत धीमी-धीमी सी,
चलता जैसे मोपेड वाहन।
तीस किलोमीटर प्रति घंटे,
यात्री का थक जाता तन मन।
थोड़ी देर चला कि इंजन,
थक कर चूर-चूर हो जाता।
कोयला खाता पानी पीता,
तब ही आगे को बढ़ पाता।
साथ किलोमीटर जाने में,
समय तीन घंटे लगते थे।
गुस्से में तो पैसेंजर तक,
गाड़ी को गाली बकते थे।
किन्तु समय अब बदल गया है।
बूढ़े इंजन बदल गए हैं।
नए इंजन बिजली वाले,
आये बिलकुल नए-नए हैं।
डिब्बे भी हैं चकमक चकमक,
सीटें भी लकदक करती हैं।
बिजली की नीली रोशनियाँ,
आँखों को शीतल करती हैं।
बिजली वाले नूतन इंजन,
क्षण भर में ही गति धर लेते।
साठ किलोमीटर की दूरी,
तीस मिनिट में तय कर लेते।
सुविधा जनक सभी डिब्बों में,
दुविधा कभी-कभी होती है।
बिजली कभी बंद हो जाती,
गाड़ी खड़ी-खड़ी रोती है।
बहुत तेज चलती गाडी में,
जब दुर्घटना हो जाती है।
घायल होते कई मुसाफिर,
जान सैकड़ों की जाती है।
तेज गति से चलने में तो,
यूं होते हैं कई फायदे।
पर दुर्घटना हो जाती यदि,
चले छोड़कर नियम कायदे।
इसीलिए हर नियम कायदे,
का पालन करना होगा।
लोगों को समझाइश देकर,
उन्हें ज्ञान देना होगा।
यदि रेल लाइन के आसपास,
कोई विध्वंसक मिलता है।
करता पटरी से छेड़ छाड़,
कोई अपराधी दिखता है।
तो तत्पर हो थाने जाकर,
या स्टेशन पर खबर करो।
कर्तव्य करो निर्भय होकर,
न शैतानों से कभी डरो।
तभी देश की रेल गाड़ियाँ,
निर्भय होकर चल पाएंगीं।
और यात्रियों को तत्पर हो,
मंजिल तक ले जा पाएंगीं।