छू गई साँस इक पाँखुरी / ललित मोहन त्रिवेदी
छू गई साँस इक पाँखुरी , प्राण मन गमगमाने लगे !
नैन में जबसे तुम आ बसे , स्वप्न भी झिलमिलाने लगे !!
जब से काजल डिठौना हुआ , हो गया जो भी होना हुआ !
झम झमाझम हुई देहरी , छम छमाछम बिछौना हुआ
बिन पखावज बिना पैंजनी , पाँव ख़ुद छन छनाने लगे !!
नैन में जबसे ...............
रस छलकते क्षणों का पिया , बूँद को भी नदी कर लिया !
चिलचिलाती हुई धूप का , नाम ही चाँदनी धर दिया !
आसमाँ दूर है तो रहे , पंख तो फड़फड़ाने लगे !!
नैन में जबसे ................
जब खुले पट नहीं द्वार के , सांकलें तोड़ दीं हार के !
मान फ़िर फन पटकने लगा , पाँव छलनी थे मनुहार के !
झनझनाने लगीं बेड़ियाँ , और तुमको बहाने लगे !!
नैन में जबसे .....................
ले लिया जोगिया वेश है , आग लेकिन अभी शेष है !
जल चुका पंखुरी का बदन , गंध में किंतु आवेश है !
ये अलग बात है आज फ़िर , अश्रु कण छलछलाने लगे !!
नैन में जबसे .....................
जब नियति के कसाले पड़े , सूर्य के होंठ काले पड़े !
पाँव मेरे जले धूप में , उनके हाथों में छाले पड़े !
जिंदगी अब न कुछ चाहिए , होश मेरे ठिकाने लगे !!
नैन में जबसे ....................