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छोड़ आए हम अजानी घाटियों में / माहेश्वर तिवारी
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छोड़ आए हम अजानी
घाटियों में
प्यार की शीतल हिमानी छाँह !
हंसी के झरने,
नदी की गति,
वनस्पति का
हरापन
ढूँढ़ता है फिर
शहर-दर-शहर
यह भटका हुआ मन
छोड़ आए हम अजानी
घाटियों में
धार की चँचल सयानी छाँह !
ऋचाओं से गूँजती
अन्तर्कथाएँ
डबडबाई आस्तिक ध्वनियाँ,
कहाँ ले जाएँ
चिटकते हुए मनके
सर्प के फन में
पड़ी मणियाँ
छोड़ आए हम पुरानी
घाटियों में
काँपते-से पल, विदा की बाँह !