भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छोड़ भजन-पूजन आराधन / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

छोड़ भजन-पूजन आरधन
छोड़ साधना, पड़ल रहे दे।
करके मंदिर के द्वार बंद
काहे कोना में बइठल बाड़े?
अपना मन का अंधकार में छिपके बइठल
रे चुपचाप करत बाड़े केकर पूजा ते?
आँख खोल के देख, कहाँ देवालय में रे?
तोर देवता घर में नइखन, बाहर में रे!
तोर देवता गइलन उहवाँ
जहवाँ माटीं भुरकुस करके
जोत रहल बा खेत किसान।
जहाँ फोड़ के पत्थर भारी
राह बनावत बा इनसान।
जहाँ बारहो मास खटत बा
माटी में मजदूर किसान।
सभका साथे खड़ा धाम बरखा में बाड़न
दूनू हाथे धूरा-मटी सनले बड़न
उन्हीं का लेखा धूरा माटी से लाग लगाव रे,
छोड़ मोह बस्तर कपड़ा के, ओही राहे आव रे।।
खोज व्यर्थ बाटे मुकुती के, मुकुती कहाँ मिली रे?
प्रभु त अपने रचना रचके रचना में शामिल रे!
छोड़ ध्यान, दे फेंक फूल के डाली, फाटे दे कपड़ा रे,
लागे दे माटी, चूए दे तन से खूब पसेना रे।
कर्मयोग के राह पकड़ के प्रभु का साथे-सथे चल रे
माटी लागे, बहे पसेना, का चिंता, तूं बढ़ते चल रे।