छोड मन तू मेरा-मेरा, अंत में कोई नहीं तेरा / हनुमानप्रसाद पोद्दार
(राग बहार-ताल तीन ताल)
(मारवाड़ी बोली)
छोड मन तू मेरा-मेरा, अंतमें कोई नहीं तेरा॥
धन कारण भटक्यो-फिर्यो, रच्या नित नया ढंग।
ढूँढ-ढूढकर पाप कमाया, चली न कौड़ी संग।
होय गया मालक बहुतेरा॥-छोड०॥
टेढी बाँधी पागड़ी, बण्यो छबीलो छैल।
धरतीपर गिणकर पग मेल्या, मौत निमाणी गैल।
बखेर्या हाड-हाड तेरा॥-छोड०॥
नित साबुनसैं न्हाइयो, अतर-फ़ुलेल लगाय।
सजी-सजायी पूतली तेरी पडी मसाणाँ जाय।
जलाकर करी भसम-ढेरा॥-छोड०॥
मदमातो, करड़ो रह्यो, राक्या राता नैन।
आयानें आदर नहिं दीन्यो, मुख नहिं मीठा बैन।
अंत जम-दूत आय घेरा॥-छोड०॥
पर-धन, पर-नारी तकी, परचरचास्यूँ हेत।
पाप-पोट माथेपर मेली, मूरख रह्यो अचेत।
हुआ फिर नरकाँमें डेरा॥-छोड०॥
राम-नाम लीन्यो नहीं सतसँगस्यूँ नहिं नेह।
जहर पियो, छोड्यो इमरतनै, अंत पड़ी मुख खेह।
साँस सब बृथा गया तेरा॥-छोड०॥
दुरलभ देही खो दई, करम कर्या बदकार।
हूँ हूँ करतो मर्यो तूँ गयो जमारो हार।
पड्यो फिर जनम-मरण फ़ेरा॥-छोड०॥
काम-क्रोध मद-लोभ तज, कर अंतरमें चेत।
‘मैं’ ‘मेरे’ ने छोड़ हृदैसें कर श्रीहरिस्यूँ हेत।
जनम यूँ सफल होय तेरा॥-छोड०॥