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जंगल उग आए / धनंजय सिंह
Kavita Kosh से
भाव-विहग उड़ इधर-उधर
दुख दाने चुग आए
मन पर घनी वनस्पतियों के
जंगल उग आए
चीते-जैसे घात लगाए
कई कुटिलताएँ
मुग्ध हिरन की आँखों का
संवेदन समझाएँ
किस-किस बियाबान के कर्ज़े
जीवन भुगताए
हरे ताल की छाती पर
आ बैठी जलकुम्भी
और किनारे पर कँटिया ले
बैठे हो तुम भी
एक-एक पीड़ा के बाँटे
कितने युग आए