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जंगल की गुर्राहट / राजेन्द्र गौतम
Kavita Kosh से
सड़कों पर लेटे सायों को
कर्फ़्यू रहा कुचल
सन्नाटा नुक्कड़ पर बैठा
अपना सिर धुनता
बस्ती मे घुसते जंगल की
गुर्राहट सुनता
गूंगी दीवारों के पीछे
बन्दी चहल-पहल
जिसे ढके है दोपहरी की
मटमैली चादर
उसका तो कल क़त्ल हुआ था
सोया कहाँ शहर
राजपथों के चौराहों पर
दहशत रही टहल
शंकित हिरनी-सी मौसम की
आँखें तब होतीं
जब हिंसक संगीनें
अपने घर मेँ डर बोतीं
बारूदी हलचल
रिश्तों के पुल भी उठे दहल