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जंगल की ठहरी साँस / जयप्रकाश मानस

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जंगल के सीने पर
एक बस रुकी है
जैसे कोई बूढ़ा आदिवासी
बाँस की टोकरी लिये
रास्ते पर ठिठक गया हो
और कह रहा हो -
अभी धान-बोनी की बात अधूरी है।

लाल-हरी बस
खिड़कियों में चेहरों की थकान
कंधों पर बोझा लिये
कुछ लोग उतरे
कुछ चढ़ने को बेकल
उनके पैरों की धूल
जंगल की माटी में
पुरखों की कहानी बन गई।

एक आदमी
कुल्हाड़ी कंधे पर टाँगे
पगडंडी को छूता चला जा रहा है
जैसे कोई हिरन
नदी की तलाश में
पत्तियों को कुचलता भागा हो।

पहाड़ खामोश हैं
उनके कंधों पर कोहरे की चादर
जैसे कोई माँ अपने बच्चे को
जंगल की लोरी सिखा रही है -
जो रुकते हैं
वही जंगल को सुनते हैं।

मैं देखता हूँ,
बस के पीछे मेरा मन
एक पेड़ की जड़-सा रुका है।

वह मन सोचता है -
जंगल छिन गया
नदी मटमैली हो गई
फिर भी ये लोग
हर सुबह तीर कमान थाम
कैसे रास्ता बना लेते हैं?

मैं भी कभी
क्या उनकी तरह
अपने पैरों की धूल से
एक नया जंगल लिख पाऊँगा?
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