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जंग के बाद / भावना शेखर

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लहू से पटी ज़मीं पर तलाशूंगी मैं
पेड़ से झड़े लुकाट के पीले गुच्छे
गयी शाम चुन कर लाए काफल
और मंघोलु के बीज

कितना मुश्किल होगा
खून में लिथड़ी केसर की पत्तियों को चुनना

कितना मुश्किल होगा
मलबे के ढेर से
कपड़े की गुड़िया को ढूंढना
जिसकी आंखों में कल टांके थे मैंने
दो काले मोती
अभी अभी मिली है जिसकी टूटी टांग

अब्बू का चश्मा भी होगा चकनाचूर कहीं
पर अब्बू ?
तस्बीह के यहां वहां पड़े दाने
चुन लूँगी हथेली में
पर पिरोने के लिए साबुत धागा कौन देगा ?

ढेले पत्थर और मिट्टी के टीलों में
दब जाएंगी
किताबें खुरपी और चूल्हा भी

खेत मे ओसारा ढूंढूंगी या ओसारे में खेत
नहीं जानती,
सारे निशान मिट जाएँगे
जो घर का पता थे कभी

लुढ़की बटलोई से टकराकर
गिर जाऊंगी
टूटे फूटे मटकों और जिस्मों के ढेर पर,
बदहवास दौड़ पड़ूँगी
झील की जानिब।

जंगी बेड़े रौंद देंगे
तालीम की मीनार और मस्जिद के गुम्बद को,
छूट जाएगा तहज़ीब का पल्लू
जो थमाया था अम्मी ने छुटपन में,

कितना मुश्किल होगा
फर्क
शाम ओ सहर का
जब स्याह धुएँ के सैलाब में
दिन दहाड़े डूब जाएगा सूरज
और
कालिख पुत जाएगी
चांद के रुखसार पर,

मैं भी रुक जाऊंगी
हमेशा के लिए
जब देखूंगी जले हुए पंखों वाली
नन्हीं अबाबील को लंगड़ाते
जो अब कभी नहीं उड़ पाएगी

पूछूँगी जाकर खुदा से
कैसा होता है रंग
जंग का
और कैसी होती है शक्ल
हैवानियत की