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जगतमें कोइ नहिं तेरा रे / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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(राग कान्हरा-तीन ताल)
जगतमें कोइ नहिं तेरा रे।
छोड़ बृथा अभिमान त्याग दे मेरा-मेरा रे॥
काल-करम बस जग-सराय बिच कीन्हा डेरा रे।
इस सरायमें सभी मुसाफर, रैन-बसेरा रे॥
जिस तनको तू सदा सँवारै, साँझ-सबेरा रे।
एक दिन मरघट पड़े भसमका होकर ढेरा रे॥
मात-पिता, भ्राता, सुत-बांधव, नारी चेरा रे।
अंत न होय सहाय, काल जब दैवै घेरा रे॥
जगका सारा भोग सदा कारन दुख केरा रे।
भज मन हरिका नाम, पार हो भव-जल बेरा रे॥
दीनदयालु भक्तञ्वत्सल हरि मालिक तेरा रे।
दीन होय उनके चरनोंमें कर ले डेरा रे॥