जगी सी भोर / ऋता शेखर 'मधु'
काली कमली ओढ़ धुंध की
सोई जगी जगी-सी भोर॥
कौन हटाये ओस दूब की
सोचे सूरज मुँह को ढांप।
घर का चूल्हा कौन जलाए
सिहरी अँगुली जाती काँप।
मोह कुहासे मनुज न तानो
कर लो अपना मन इंजोर॥
टपरी पर सोंधी चाय बनी
सर्द हथेली पाती ताप।
ज्यों बातों की रेल चली है
मुख का इंजन उगले भाप।
वे तीव्र गति दैनिक अख़बार
ख़बर बाँटते हैं पुरजोर॥
बक्सा से बाहर झाँक रहे
दस्ताने, मोजे गुलबन्द।
जमे भाव पर ऊष्मा उतरी
पिघल रहे बर्फीले छन्द।
तिल महका तिलवा चहका है
देखो भीड़ जुटी उस ओर॥
उषा बनी है कोह-बंदिनी
अरुण छुड़ाओ करो न देर।
धूप संगिनी किधर खो गयी
राह ताकता रहा सवेर।
भूख ज्वाल से शीत हारती
निकल पड़े खेतों में ढोर॥
सुलग रहे हैं मोड़-मोड़ पर
लगी अलावों की है भीड़।
सेंक रहे यादों की लिट्टी
पेड़ों पर होते थे नीड़।
बूढ़ी हड्डी की खातिर ही
बनी बोरसी चारो ओर॥