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जग के जलागार में जीवन कागज की लघु नाव है / रंजना वर्मा

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जग के जलागार में जीवन कागज की लघु नाव है।
उच्छृंखल उर्मियाँ न जाने इस का कहाँ पड़ाव है॥

जलधि तरंगों के द्वारा झंझाओं को जनता रहता
है विकराल अभाव लहर विपदा का तेज बहाव है॥

सिद्धि नहीं मिलती पग-पग अगणित आघात मिला करते
तन घायल होता मन पर भी अन्तर्बेधित घाव है॥

नहीं जीवन नौका ले संघर्षित हो आहत होता
मूढ़ प्राण को फिर भी जी लेने का कितना चाव है॥

नहीं जानता कितनी दूर चलेगा दुर्बल पाँवों से
गतिमय जीवन प्रकृति सिंधु का भला कहाँ ठहराव है॥

औरों को छलते-छलते छल का इतना अभ्यस्त हुआ
मूर्ख बना अब मनुज स्वयं से करने लगा दुराव है॥

पलों क्षणों के अंतराल पर वर्तमान जो जी लेता
वही समझता है जीवन केवल जीने का भाव है॥