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जग चले उस घाट कौन जाय / संत तुकाराम

जग चले उस घाट कौन जाय । नहिं समजत इर-इर गोते खाय ।।धृ०।।
नहिं एक-दि सकल संसार । जो बुझे<ref>जानता है</ref> सो आगला स्वार<ref>सवारी</ref> ।।१।।
ऊपर स्वार बैठे कृष्णा-पीठ<ref>कृष्ण का आधार</ref> । नहिं बाचे कोइ जावे लूट ।।२।।
देखहिं डर फेर बैठा तुका । जोबत मारग<ref>राह देखते हैं</ref> रामहि एका ।।३।।

भावार्थ :
सारा जगत ग़लत मार्ग से जा रहा है और अपनी ग़लती न समझते हुए बार-बार गोते खा रहा है। ऐसे अयोग्य मार्ग से जाने में क्या लाभ है ? केवल एक-दो ही नहीं, बल्कि सारा संसार भटक रहा है । बिरला ही कोई समझदार उचित सवारी पर आरूढ़ होता है । कृष्ण के आधार में जो सवारी करता है, वही बचता है। अन्य सभी लुट जाते हैं, कोई बचता नहीं है। इसलिए भय का त्याग करते हुए तुकाराम काल पर सवार हो गए हैं और एक मात्र राम के आने की राह देख रहे हैं।

शब्दार्थ
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