जग पूछ रहा मुझसे / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
जग पूछ रहा मुझसे पर मैं क्या बतलाऊँ
मैं मानव हूँ बस इतना सा मेरा परिचय।
मैं कौन? कहाँ से? क्यों आया हूँ? और किधर
जाउँगा? इसका मुझको कुछ भी ज्ञान नहीं,
ढँढा अपने अंतर को मैंने बहुत, किंतु
हो सकी मुझे अपनी ही खुद पहचान नहीं।
इतना समझा हूँ मैं भी एक पथिक पथ का
मंजिल तय करनी है मुझको कोई निश्चय।
है पंथ अपरिचित भले, किंतु मैं एकाकी
हूँ पथिक नहीं, मेरे साथी अनगिन जग में,
कुछ साथ चले, कुछ हुए साथ, कुछ से परिचय
हो गया प्राप्त चलते-चलते सँग में मग के।
हँस बोल साथ चल रहे सभी औ’ मंजिल भी
बातों ही बातों में होती जाती है तय।
जैसे तुम क्षिति-जल-पावक-गगन-पवन के इन
तत्वों से बने हुए, वैसे मेरा तन भी,
जिस भाव-सिंधु की लहरों में लहराते तुम
उसमें ही डूबा रहता यह मेरा मन भी।
हाँ लगा-लगा गोते मैं करता रहता हूँ
जीवन के अनुभव-रत्नों का प्रतिपल संचय।
जो है मानव की शक्ति, वही मुझमें भी है
जो है मानव की दुर्बलता, वह भी मुझ में
जिसमें हो केवल शक्ति न हों दुर्बलताएँ
ऐसा मानव देखा न अभी मैंने जग में
इसलिए भूल औ’ कमजोरी जो कुछ भी हो
कर लेता निःसंकोच उसे स्वीकार हृदय।
वरदान मिला वाणी का मुझको थोड़ा-सा
इसलिए बात मन की जग से कह लेता हूँ
जग सुने या कि अनसुनी करे, परवाह नहीं;
मैं तो अपने मन को हलका कर लेता हूँ।
मेरे अंतर से जो आवाज़ निकलती है
जग कह देता उसको मेरे गीतों की लय।
मैं फूल समझता रहा जिन्हें अपने मन में
वे ही मेरे जीवन के पथ के शूल बने
शृंगार समझ कर मैंने जिनको प्यार किया
वे ही मेरे अंगार और पथ धूल बने।
मैं रंगमंच का पात्र एक, इसलिए विवश
करता रहता हँस-हँस कर यह सुंदर अभिनय।
मत पूछो मुझसे जीत हुई या हुई हार
मैं कभी नहीं आशा करता कोई फल की,
इसलिए हृदय संतप्त हुआ न कभी मेरा
बह रही सतत अविरल धारा शीतल जल की।
ये क्षणिक दृश्य हैं जीवन के रण के धूमिल
लगती हैं मुझे समान पराजय और विजय।