जड़वत मोहरे / संतोष श्रीवास्तव
मैं ढूँढती हूँ
अनगिनत
मनसूबों की लकीरें
अपनी हथेलियों में
यह ऐसा था
मानो ख़ुद को
ला खड़ा करना
नियति के विरुद्ध
या एक पागल आस
पिघलती चांदनी में
एक टुकड़ा कामना
क्षितिज को
बाहों में लेने की
पुरवाई संग
दूर तलक बहने की
बूँद बन बादल की कोख में
समा जाने की
किसी बंजर टुकड़े पर
बरस जाने की
लेकिन हथेलियों की
लकीरों का उलझा जाल
मुझे पहुँचा देता है
उन गलियों में
जहाँ नींद और संतुष्टि
गिरवी रखे हैं
जिनकी बिन लकीरों वाली
हथेलियाँ एकदम सपाट हैं
दिन मजबूर
रातें बिकी हुई
जहाँ सुनहली आँच में
सिंकती रोटियों की ख़ुशबू
उनकी सोच की दीवानगी है
वे टटोलते हैं ख़ुद को
वे हैं न !!!
हाड़-माँस के जीवित पुतले?
या सियासत की
शतरंज के मोहरे?
मैं उलझी लकीरों में
मनसूबों के बोझ तले
कितनी ही छटपटाऊँ
मोहरे जड़वत ही रहेंगे