जदा-ए-फ़न में बड़े सख़्त मुक़ाम आते हैं
मर के रह जाता है फ़नकार अमर होने तक
कितने ग़ालिब थे, जो पैदा हुए और मर भी गए
क़द्रदानों को तख़ल्लुस की ख़बर होने तक
कितने इक़बाल रहे-फ़िक्र में उठे लेकिन
रास्ता भूल गए, ख़त्मे-सफर होने तक
कितने शब्बीर हसन खाँ न बने जोश कभी
मर गए कितने सिकन्दर भी जिगर होने तक
चन्द ज़र्रों को ही मिलती है ज़िया-ए-ख़ुर्शीद
चन्द तारे ही चमकते हैं सहर होने तक
दिले-शायर पे कुछ ऐसी ही गुज़रती है ‘फ़िगार’
जो किसी क़तरे पे गुज़रे है गुहर होने तक