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जनता करे, तो क्या करे / कौशल किशोर

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वह धमकाता है
सारी दुनिया को धमकाता है
 
मन मस्तिष्क पर सवार
प्रेत छाया की तरह डोलता
निद्रा अर्धनिद्रा
सोते जागते
सपने में आता है
वहाँ भी धमकाता है
 
वह आतंक बोता है
फसलें लहलहाती हैं
खिलखिलाता
दुनिया पर इतना मेहरबान
कि दोनों हाथों से लुटाता है
इसके पेटेंट बीज
 
अपने पर बड़ा गुमान कि
वह जो करता है
लोकतंत्र के लिए करता है
कटोरा बांटता है
जैसे भिखारी को रोटी के टुकड़े
वैसे ही वह फेंकता है
कटोरे में लोकतंत्र
 
वह देश को धमकाता है
शैतानी इच्छाएँ
सुरसा-सा मुख
नभ धरती
हवा पानी
पेड़ पौधे जंगल
नदी पहाड़ पोखर
वह निगल जाना चाहता है
प्यारी मातृभूमि
 
वह सरकार को धमकाता है
सौ करोड़ से अधिक आबादी वाला
इतना बड़ा देश
एक बार हुंकार
बस, भर दे सरकार
लहरा उठे करोड़ों जोड़ी हाथ
भिंच जाए मुट्ठियाँ
समुद्र में ज्वार भाटा
नदियों में उफान
तन जाए जंगल
पहाड़ों के मस्तक व भाल
 
पर क्या कहें
इतनी बहादुर है सरकार
कि समन्दर पार से
वह दिखाता है अपनी आंखें
और थर-थर कांपने लगती है सरकार
 
वह जीभ लपलपाता है
और भूखे शेर के सामने बकरी-सी
रिरिआने मिमियाने लगती है सरकार
 
वह जरा-सा पुचकारता है
कि दुम हिलाने
तलुए चाटने लगती है सरकार
 
अब आप ही बताओ
जब देश में हो ऐसी सरकार
करोडों करोड़ जनता
करे, तो क्या करे
वह डूब मरे
या डुबो दे ऐसी सरकार।