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जननी जन्मभूमि / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय

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मैं अपनी माँ को बहुत अधिक चाहता था
-लेकिन ऐसा मैं कभी नहीं कह पाया।
कभी-कभार, मैं टिफ़िन के पैसे बचाकर
ख़रीद लाता था सन्तरे
चारपाई पर बीमार पड़ी माँ की आँखें
छलछला उठती थीं,
-लेकिन मैं अपनी प्यार-भरी बातें
माँ को अपनी जु़बान से कभी कह नहीं पाया।

हे देशभूमि, ओ मेरी जननी-
मैं तुम्हें कैसे बताऊँ...!

मैं जिस माटी पर घुटनों के बल खड़ा हुआ
मेरे दोनों हाथों
और दसों उँगलियों में-
उसी की स्मृतियाँ सँजोयी हुई हैं।

मैं जहाँ कहीं भी करता हूँ स्पर्श
वहाँ..., हाँ माँ,
वहीं रहती हो तुम
तुम्हारे हाथों में बजती है मेरे हृदय वीणा।

सच माँ!
तुम्हारे रहते कभी डर नहीं लगा हमें।
जिन्होंने भी तुम्हारी माटी की तरफ अपने निष्ठुर पंजे बढ़ाये हैं
हम उनकी गर्दन मरोड़कर...सीमा के बाहर तक
खदेड़कर दम लेंगे।

हम जीवन को कुछ अपने ही ढंग से
सजा रहे थे-
और वैसा ही सजाते रहेंगे।

हाँ माँ,
हम कभी भयभीत नहीं हुए।
लेकिन यज्ञ में घटित हो रहे विघ्न से
हम परेशान हैं।

मुँह बन्द रख्कर भी
कभी न थकनेवाले हाथों से-
ओ माँ,
हम अपनी प्रेमभरी बातें दोहराते रहेंगे।